कविता: विशेष दिन, नारी के मन की व्यथा

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रचनाकार : पल्लवी जोशी
यूनिवर्सिटी ऑफ दिल्ली
द्वाराहाट अल्मोड़ा

विशेष दिन
होते हैं जब नारी को
वंचित रखता है तू
उसको घर के कामों से
अपवित्र तब हो जाती है कहकर
क्यों जलील बार-बार करता है
क्यों विशेष दिनों में कोना उसको पकड़ा देता है
वस्तु छू जाने पर उसके गोमूत्र, गंगाजल छिड़क देता
जन्म दिया जिस बेटे को
विशेष दिनों में
मां को छूने से घबराता है पता नहीं मासूम को अभी यह
क्यों ऐसा मां के साथ हो रहा है
समय बढ़ता है
सामाजिक परंपराओं को रचा बसा कर
वहीं मासूम मर्द बन जाता है जो बचपन में मां को दूर करने पर रोता था।
आज वही मां को कोना पकड़ाता है
सारा खेल सामाजिक ढांचे का है जो मासूम को कट्टर बनाने में
कोई कसर नहीं छोड़ता
और नारी को उसके विशेष दिनों के लिए कोसता रहता है,
अरे! मत भूल तू भी उसकी कोख से ही जन्मा है
अपवित्र कहकर जब जब अपमानित तू करता है
तब तब शर्म से सर उसका झुक जाता है
और अपना नारी रूप अभिशाप समझकर जलील होती रहती हैं।

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