
कमल कवि कांडपाल
जून का महीना जैसै ही अधर में पहुंचा रहता है, सीढ़ीदार खेतों में हरे भरे बिन (धान की पौध) अपने यौवन में तैयार होकर प्राकृतिक सौंदर्य को बढ़ाने के साथ ही रोपाई शुरू करने के लिए काश्तकार का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने लगती।
लेकिन आधुनिक समय की दौड़ और सरकार की लोकलुभावनी योजनाओं से किसानों की खेती से निर्भरता पर भी असर पड़ा है जिससे चलते धीरे धीरे रोपाई का रकबा धीरे धीरे घटने लगा है।
जिन गांवों में पिछले पांच सालों में हर परिवार दो तीन रोपाई करता आ रहा था अब वह सिमट कर एक रोपाई या फिर बिल्कुल नहीं पर आ गया है।
जिन जल स्त्रोतों पर किसान रोपाई हेतू निर्भर रहते थे उन स्रोतों के पानी में भी कमी देखने को मिल रही है या फिर स्रोतों के पानी से सरकारी योजनाएं प्रस्तावित कर घर घर पहुंचा दिया गया।
हम शासन और प्रशासन का ध्यान आकर्षित करना चाहेंगे कि जिन क्षेत्रों में इस तरह की समस्याएं उन क्षेत्रों के जलस्रोतों के रखरखाव में और वहां के लोगों को रोपाई के प्रति जागरूकता के लिए विशेष ध्यान देने की जरूरत है अन्यथा आने वाले समय में यह रोपाई प्रथा विलुप्ति के मुहाने पर खड़ी मिलेगी





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