कमल कवि कांडपाल
क्या बात करते हो यार
जुगाड़ से नौकरी उत्तराखंड में
अरे नहीं में भी तो पहाड़ी हूं
मैंने भी देखें हैं जुगाड़
बोज्यु मेरे,हल जोता करते थे
गांव भर का जोता करते थे,
जब कभी हल खजबजी जाता था
उसको पत्याकर बना देते थे
फिर से चलायमान।
तब देखा मैंने जुगाड़।
पुरानी घिस चुकी चप्पल ईजा की
वो चप्पल की खूंटी
जब किसी रोज़ साथ छोड़ देती थी
धोती के पुराने कतरे से बांध कर फिर से उसे बना देती थी उसे नया सा।
तब देखा मैंने जुगाड़।
इंटर कालेज की वो खाकी पेंट
बढ़ती उम्र के साथ जब छोटी पड़ने लगी
तब गौंदा दर्जी
उसकी तुरपाई को झटपट उधेड़ कर बढ़ा कर देता था।
तब देखा मैंने जुगाड़।
चौमास की मूसलाधार बारिश में
जब पाथर वाला वो घर
जगह जगह से चूने लगता
तब मोमजामे से किसी तरह
उस रोका जाता था।
तब देखा मैंने जुगाड़।
और तुम कहते हो मेरे राज्य में
जुगाड़ से नौकरी
अरे यार झूठ क्यों बोलते हो
क्यों ठगते तो हम भोले पहाड़ियों को।
कमल कवि कांडपाल हिंदी और कुमाउनी में कविता लेखन और पाठ करते हैं