………और ये सवाल बेहद अहम व लाजिमी है..
हरीश जोशी गरुड़
गाहे बगाहे ही सही 75 साल इस राष्ट्रीय आयोजन में एक सवाल बड़ी टीस के साथ कचोट रहा है कि इतनी बड़ी तादाद में घर घर,गली गली मोहल्ले मुहल्ले जो इन तिरंगों से पट गये हैं या पाट दिये गये हैं, 15 अगस्त निपट जाने के बाद राष्ट्रीय अस्मिता के सर्वोच्च प्रतीक इन ध्वजों का सम्मान कैसे बना रहेगा।क्या इनका वास्तविक उपयोग हो भी सकेगा। सवालों की फेरहिस्त बहुत लम्बी है….???
अभी अभी दोपहर की उबलती हुई गर्मी पड़ रही है घरों घरों में झंडे बाँटने की होड़ लगी है हर झंडा वितरण के साथ एक मोबाइल पिक मेंडेटरी रूप से ली जा रही है औसतन हर घर में झंडों की संख्या कम से कम दहाई का अंक तो पार कर ही जा रही होगी।बिलकुल चुनावी माहौल सा हो रहा है बस फर्क ये है कि चुनावों में पार्टी के झंडे होते हैं तो इस बार इस राष्ट्रीय अस्मिता के प्रतीक की बारी है सवाल है कि राष्ट्रीय आस्था और सम्मान के प्रतीक इन ध्वजों का भी हश्र पार्टी झंडों का ही जैसा होने जा रहा है या फिर इनको संवैधानिक रूप से संभाल की भी कोई व्यवस्था दी गयी है?
अमृत महोत्सव हर घर तिरंगा की फौरी आपाधापी के बीच ये सवाल इसलिये भी जरूरी हो जाता है कि झंडा संहिता को इतना लचीला कर दिया गया है कि ध्वज महज एक व्यापारिक गतिविधि बनकर रह गया है ? ध्वज के तयशुदा साइज और अनुपात,उपयोग किये जा रहे वस्त्र की बात करना तो बेईमानी सा लग रहा है।
जश्न हो इससे और बड़ा हो इस बात से किसे गुरेज है और क्यों कोई इंकार करेगा पर इस राष्ट्रीय अस्मिता के सर्वोच्च प्रतीक के प्रति गम्भीरता का ध्यान भी आवश्यक रूप से रखा ही जाना चाहिये।कहीं ऐसा ना हो कि त्यौहारी रौ में अस्मिता ही दरकिनार हो जाये।
ध्यान रहे हम लाये हैं तूफान से कश्ती निकाल के,इस देश को रखना मेरे बच्चो सम्भाल के…..। सिर्फ गायकी की विषयवस्तु नहीं है अपितु राष्ट्रीय सम्मान हेतु जीवन में आचरण की दरकार भी रखता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)