नौकरी यानी नौ करों का बोझ। चाहे सरकारी क्षेत्र हो अथवा गैर सरकारी। बड़ी हो अथवा छोटी, है तो नौकरी। इसीसे आजीविका चलती हैं। यह बात सच हैं। लेकिन इसके दूसरे पक्ष को सिरे से खारिज नही किया जा सकता। शिक्षा प्राप्त अथवा ग्रहण करने का इतना छोटा उद्देश्य कैसे हो सकता हैं। नई शिक्षा नीति भी सृजनात्मकता पर जोर दे रही हैं। शिक्षा ने हमको काबिल, योग्य बनाना चाहिए। लेकिन योग्यता का ये मैदान दिन-प्रतिदिन सिकुड़ता क्यों जा रहा हैं। विभिन्न दक्षताओं, कलाओं, कौशलों में विशेषज्ञता करना तो ठीक है, मगर इन सबको नौकरी तक ही पहुँचा कर छोड़ आना कहा ठीक है। आज हमें नौकरी की जगह शिक्षा से मानव को उत्पादक बनाने की जरूरत ज्यादा हैं। उत्पादकता किसी भी बंजर या गैर उपजाऊ भूमि में भी अपकने हूनर, कौशल से सफलता का झंडा गाड़ सकती हैं।
प्रायः दूध पीते बच्चे से भी पूछ लिया जाता है कि बड़े होकर क्या नौकरी करोगे। नौकरी करने अथवा करवाने की इस छोटी व संकीर्ण मानसिकता का परित्याग करने का समय आ चुका हैं। बच्चों से पूछा जाना चाहिए तुमको क्या काम करनाअच्छा लगता है और अच्छा नही लगता हैं। और फिर इसी हुनर को तराश कर चमकाया जाना चाहिए। नौकरी में हम अच्छे हो सकते है जरूरी नही कल्पनाशील व रचनात्मक हो। कल्पनाशील, रचनात्मकता ही हमसे सृजन करवाती हैं। और हम उद्यम से उत्पादक बनते हैं, बनाते है। गौरतलब हैं देश का टॉप मॉडल में रिसर्च और डेवलोपमेन्ट(R&D) का हमारी प्रतिशत अभी भी विश्व विरादरी में पूर्णांक में नही हैं।
समाज की समग्रता एवं विविधता और राष्ट्र के लिए एक अच्छा व जिम्मेदार नागरिक इसी से तैयार हो सकता है ना कि सिर्फ नौकरी और नौकरी के हौवै से।
प्रेम प्रकाश उपाध्याय “नेचुरल” बागेश्वर, उत्तराखंड
(शिक्षा एवं सामाजिक क्षेत्रों से सरोकार)