भारत-चीन युद्ध में उपजी पस्थितियों से निपटने के लिए हुआ था एसएसबी का गठन
वर्ष 2001 में केंद्र सरकार ने बल को दे दिया पैरा मिलिट्री फोर्स का दर्जा
बागेश्वर। आखिरकार छद्म युद्ध (गुरिल्ला वारफेयर) में दक्ष एसएसबी के स्वयंसेवकों का 18 वर्ष लंबा संघर्ष अब जाकर रंग लाया है। उत्तराखंड हाई कोर्ट के फैसले के बाद एसएसबी के गुरिल्लों को बल में समायोजन और उनके आश्रितों को पेंशन मिलने की उम्मीद जाग गई है।
देश की सुरक्षा में एसएसबी और गुरिल्लों की भूमिका पर प्रकाश डालें तो एसएसबी का गठन वर्ष 1962 के भारत चीन युद्ध के बाद उपजी परिस्थितियों से निपटने के लिए किया गया था। वर्ष 1963 में केंद्रीय कैबिनेट के अधीन स्पेशल सिक्रेट ब्यूरो (एसएसबी) का गठन किया गया। इस बल को अन्य देशों की नजरों से बचाने के लिए इसकी गतिविधियों को गुप्त तरीके से चलाया गया। इसी को देखते हुए एसएसबी को सेवा सुरक्षा बंधुत्व नाम दिया गया। बहुत कम लोगों को ही एसएसबी के असली नाम का पता था। एसएसबी को चीन से लगी सीमाओं उत्तराखंड, हिमाचल, अरुणाचल और पूर्वोत्तर राज्यों में किया गया। बल का काम सीमावर्ती क्षेत्र के लोगों को हथियार संचालन की बेसिक जानकारी देने के साथ ही समय-समय पर प्रशिक्षण देना था। सीमांत के लोगों को स्वास्थ्य सुविधा भी एसएसबी उपलब्ध कराती थी।
गांव स्तर पर युवक युवतियों को हथियारों का प्रशिक्षण देने के बाद चयनित युवाओं को 45 दिन की विशेष गुरिल्ला ट्रेनिंग के लिए हिमाचल के सराहन और उत्तराखंड के ग्वालदम भेजा जाता था। एसएसबी के देश में यही दो ट्रेनिंग सेंटर हुआ करते थे। युवतियों को गढ़वाल के पौड़ी में प्रशिक्षण दिया जाता था। युवतियों को वार्डन नाम से संबोधित किया जाता था। गुरिल्ला ट्रेनिंग लेने वाले युवाओं को ही एसएसबी में भर्ती किया जाता था। यहां तक कि बल में कमीशन से आने वाले अधिकारियों को भी अनिवार्य रूप से गुरिल्ला ट्रेनिंग लेनी पड़ती थी। 45 दिन की ट्रेनिंग के दौरान स्वयंसेवकों को छद्म युद्ध का गहन प्रशिक्षण दिया जाता था। गुरिल्ला युद्ध में पारंगत किया जाता था। गुरिल्ला प्रशिक्षण प्राप्त स्वयंसेवकों को समय-समय पर युद्धाभ्यास कराया जाता था। इसके लिए स्वयंसेवकों को निश्चित मानदेय दिया जाता था।
वर्ष 2001 मैं तत्कालीन केंद्र सरकार ने एसएसबी को केंद्रीय कैबिनेट से पृथक करते हुए पैरामिलिट्री फोर्स का दर्जा दे दिया और गृह मंत्रालय के अधीन कर दिया। नाम सशस्त्र सीमा बल रख दिया। एसएसबी के पैरामिलिट्री फोर्स बनते हैं गुरिल्लों की भूमिका को समाप्त कर दिया गया। सरकार के फैसले के खिलाफ पूर्वोत्तर के स्वयंसेवकों ने गुवाहाटी हाईकोर्ट में याचिका दायर की। इस याचिका के आधार पर गुवाहाटी हाईकोर्ट ने गुरिल्लों को एसएसबी में समायोजित करने के आदेश दिए। इस आदेश के आधार पर पूर्वोत्तर के गुरिल्लों को एसएसबी में समायोजित किया गया, लेकिन देश के अन्य प्रांतों की गुरिल्लों को समायोजित नहीं किया गया। जिससे जिससे उत्तराखंड समेत अन्य राज्यों गुरिल्लों में असंतोष व्याप्त हो गया।
वर्ष 2004 में पिथौरागढ़ जिले के गंगोलीहाट के स्वयंसेवकों ने संगठन बनाकर पूर्वोत्तर की भांति उत्तराखंड और अन्य प्रांतों के स्वयंसेवकों को भी समायोजित करने, 40 वर्ष से अधिक उम्र के स्वयंसेवकों और उनके आश्रितों को पेंशन देने की मांग को लेकर आंदोलन खड़ा कर दिया। केपी रावल को संगठन का अध्यक्ष चुना गया। स्वर्गीय महेश लाल साह जुगल, राजेंद्र चौधरी आदि संस्थापक सदस्य थे। बहुत ही जल्द आंदोलन पिथौरागढ़ अल्मोड़ा तक फैल गया। अल्मोड़ा में कुमाऊं के गुरिल्लों की बैठक में बृहद संगठन की रूपरेखा तैयार की गई। वरिष्ठ गुरिल्ला ब्रह्मानंद डालाकोटी को संगठन का केंद्रीय अध्यक्ष, केपी रावल को संस्थापक संरक्षक, शिवराज बनोला समेत तमाम वरिष्ठ गुरुजनों को संगठन में अहम जिम्मेदारी दी गई।
अल्मोड़ा में वर्ष 2004 के बाद अनवरत अनवरत आंदोलन चल रहा है, जो आज भी जारी है। धीर- धीरे यह आंदोलन उत्तराखंड के साथ अन्य प्रांतों में फैलने लगा।
पिथौरागढ़ निवासी मोहन सिंह और अन्य की याचिका पर उत्तराखंड हाई कोर्ट ने गुरिल्लों के हक में फैसला सुनाया है। इससे राज्य के करीब 20000 गुरिल्लों को लाभ मिलेगा।
गुरिल्ला संगठन के केंद्रीय अध्यक्ष ब्रह्मानंद डालाकोटी का कहना है कि केंद्र सरकार को हाईकोर्ट के फैसले पर तत्काल अमल करना चाहिए और प्रशिक्षित गुरिल्लों का राष्ट्रहित में योग किया जाना चाहिए। उम्र दराज गुरिल्लों और उनके आश्रितों को पेंशन देनी चाहिए।
अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने दी थी एसएसपी को ट्रेनिंग
बागेश्वर। वर्ष 1963 मैं जब एसएसबी का गठन किया गया तो एसएसबी के जवानों को अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए के प्रशिक्षकों ने गुरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण दिया था।